आयुर्वेद : भारतीय चिकित्सा प्रणाली प्राचीनतम एवं आज भी प्रासंगिक
प्राचीन भारतीय वेद ज्ञान की आध्यात्मिक परंपरा का एक हिस्सा उपचार के लिए भी जाना जाता है और वह हिस्सा है आयुर्वेद । जिस प्रकार वेदों में जीवन के लगभग सारे आयाम जैसे आचार, व्यवहार, आध्यात्मिक जीवन, स्वास्थ्य, ज्योतिष आदि आते हैं, उनमें से एक आधुनिक चिकित्सा का आयाम भी है । अर्थात आधुनिक चिकित्सा की जड़े वेदों में निहित है । ऋग्वेद में ब्रह्मांड विज्ञान का ज्ञान है जो आयुर्वेद और योग दोनों के आधार पर स्थित है। ऋग्वेद में लिखे हुए छंदों का सिद्धांत स्वास्थ्य, योग की प्रकृति, रोग जनन और उपचार होता है।
कायबालग्रहोर्ध्वाङ्गशल्यदंष्ट्राजरावृषान् ॥ 5 ।।
अष्टावङ्गानि तस्याहुश्चिकित्सा येषु संश्रिता ।
वायु: पित्तं कफश्चेति त्रयो दोषा: समासत: ॥ 6 ।।
विकृताऽविकृता देहं घ्नन्ति ते वर्त्तयन्ति च ।
– अष्टांगहृदयम् प्रथमोध्याय
शरीर तीन कारकों से निर्मित
आयुर्वेद के अनुसार यह बताया जाता रहा है कि शरीर तीन मुख्य कारकों से बना है वायु पित्त और कफ । इन कारक दोषों के बीच जब समन्वय और संतुलन बना होता है तो उसे ही स्वास्थ्य कहते हैं और यही संतुलन जब नहीं बन पाता, तब रोग की स्थिति जनित होती है । प्रत्येक दोष अंतरिक्ष, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी के पांच तत्वों से प्राप्त विशेषताओं का प्रतिनिधित्व करता है। जड़ी-बूटियों का उपयोग मन और शरीर के रोगों को ठीक करने और दीर्घायु को बढ़ावा देने के लिए किया जाता है।
अंगहृदयम् आयुर्वेद की आठ शाखाओं की सूची देता है।
वो हैं-
1.काया चिकित्सा (आंतरिक चिकित्सा),
2.बाला चिकित्सा (बच्चों का उपचार / बाल रोग),
3.ग्रह चिकित्सा (दानव विज्ञान / मनोविज्ञान),
4.उर्ध्वंगा चिकित्सा (हंसली के ऊपर के रोग का उपचार),
5.शल्य चिकित्सा (सर्जरी),
6.दमित्र चिकित्सा (विष विज्ञान),
7.जरा चिकित्सा (जराचिकित्सा, कायाकल्प), और
8.व्हा चिकित्सा (कामोद्दीपक चिकित्सा)।